हे कृष्ण,लेकिन नौका तट छोड़ चली,
कुछ पता नहीं किस ओर चली
यह बीच नदी की धारा है,
सूझता न कूल-किनारा है
ले लील भले यह धार मुझे,
लौटना नहीं स्वीकार मुझे
धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ,
भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ?
कुल की पोशाक पहन कर के,
सिर उठा चलूँ कुछ तन कर के?
इस झूठ-मूठ में रस क्या है?
केशव ! यह सुयश - सुयश क्या है?
सिर पर कुलीनता का टीका,
भीतर जीवन का रस फीका
अपना न नाम जो ले सकते,
परिचय न तेज से दे सकते
ऐसे भी कुछ नर होते हैं
कुल को खाते औ' खोते हैं
विक्रमी पुरुष लेकिन सिर पर,
चलता ना छत्र पुरखों का धर.
अपना बल-तेज जगाता है,
सम्मान जगत से पाता है
सब देख उसे ललचाते हैं,
कर विविध यत्न अपनाते हैं
कुल-गोत्र नही साधन मेरा,
पुरुषार्थ एक बस धन मेरा
कुल ने तो मुझको फेंक दिया
मैंने हिम्मत से काम लिया
अब वंश चकित भरमाया है,
खुद मुझे खोजने आया है
लेकिन, मैं लौट चलूँगा क्या?
अपने प्रण से विचरूँगा क्या?
रण में कुरूपति का विजय वरण,
या पार्थ-हाथ कर्ण का मरण,
हे कृष्ण यही मति मेरी है,
तीसरी नहीं गति मेरी है।
मैत्री की बड़ी सुखद छाया,
शीतल हो जाती है काया,
धिक्कार-योग्य होगा वह नर,
जो पाकर भी ऐसा तरुवर,
हो अलग खड़ा कटवाता है
खुद आप नहीं कट जाता है।
जिस नर की बांह गही मैने,
जिस तरु की छाँह गहि मैने,
उस पर न वार चलने दूँगा,
कैसे कुठार चलने दूँगा,
जीते जी उसे बचाऊँगा,
या आप स्वयं कट जाऊँगा।
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