मित्रता बड़ा अनमोल रतन,
कब उसे तोल सकता है धन?
धरती की तो है क्या बिसात?
आ जाय अगर बैकुंठ हाथ
उसको भी न्योछावर कर दूँ,
कुरूपति के चरणों पर धर दूँ।
सिर लिए स्कंध पर चलता हूँ,
उस दिन के लिए मचलता हूँ,
यदि चले वज्र दुर्योधन पर,
ले लूँ बढ़कर अपने ऊपर
कटवा दूँ उसके लिए गला,
चाहिए मुझे क्या और भला?
सम्राट बनेंगे धर्मराज,
या पाएगा कुरूराज ताज,
लड़ना भर मेरा काम रहा
दुर्योधन का संग्राम रहा
मुझको न कहीं कुछ पाना है
केवल ऋण मात्र चुकाना है
कुरूराज्य चाहता मैं कब हूँ?
साम्राज्य चाहता मैं कब हूँ?
क्या नहीं आपने भी जाना?
मुझको न आज तक पहचाना?
जीवन का मूल्य समझता हूँ,
धन को मैं धूल समझता हूँ.
धनराशि जोगना लक्ष्य नहीं,
साम्राज्य भोगना लक्ष्य नहीं
भुजबल से कर संसार विजय,
अगणित समृद्धियों का सन्चय,
दे दिया मित्र दुर्योधन को,
तृष्णा भी छू ना सकी मन को|
वैभव विलास की चाह नहीं,
अपनी कोई परवाह नहीं,
बस यही चाहता हूँ केवल,
दान की देव सरिता निर्मल,
करतल से झरती रहे सदा,
निर्धन को भरती रहे सदा।
तुच्छ है राज्य क्या है केशव?
पाता क्या नर कर प्राप्त विभव?
चिंता प्रभूत, अत्यल्प हास,
कुछ चाकचिक्य, कुछ क्षण विलास,
पर वह भी यहीं गंवाना है,
कुछ साथ नहीं ले जाना है।
मुझसे मनुष्य जो होते हैं,
कंचन का भार न ढोते हैं,
पाते हैं धन बिखराने को|
लाते हैं रतन लुटाने को,
जग से न कभी कुछ लेते हैं|
दान ही हृदय का देते हैं।
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