"रश्मिरथी -- : "कर्ण-श्रीकृष्ण बातचीत की कुछ चुनिंदा पंक्तियां--"


"Rashmirathi-:" A few select lines of Karna-Shri Krishna conversation-"

हे कृष्ण,मुझसे मनुष्य जो होते हैं,
कंचन का भार न ढोते हैं,
        पाते हैं धन बिखराने को|
        लाते हैं रतन लुटाने को,
        जगत, से न कभी कुछ लेते हैं,
        दान ही हृदय का देते हैं।

प्रासादों के कनकाभ शिखर,
होते कबूतरों के ही घर,
       महलों में गरुड़ ना होता है,
        कंचन पर कभी न सोता है
       रहता वह कहीं पहाड़ों में,
       शैलों की फटी दरारों में.।

होकर सुख-समृद्धि के अधीन,
मानव होता निज तप क्षीण,
      सत्ता, किरीट, मणिमय, आसन
      करते मनुष्य का तेज हरण।
      नर विभव हेतु लालचाता है,
      पर वही मनुज को खाता है।

चाँदनी पुष्प-छाया में पल,
नर भले बने सुमधुर कोमल,
     पर अमृत क्लेश का पिये बिना,
      आतप, अंधड़ में जिये बिना,
      वह पुरुष नहीं कहला सकता,
      विघ्नों को नहीं हिला सकता।

उड़ते जो झंझावतों में,
पीते सो वारि प्रपातों में,
      सारा आकाश अयन जिनका,
      विषधर भुजंग भोजन जिनका,
      वे ही फणिबंध छुड़ाते हैं,
      धरती का हृदय जुड़ाते हैं।

.मैं गरुड़ कृष्ण! मैं पक्षिराज,
सिर पर ना चाहिए मुझे ताज।
          दुर्योधन पर है विपद घोर,
          सकता न किसी विधि उसे छोड़।
          रण-खेत पाटना है मुझको,
         अहिपाश काटना है मुझको।

संग्राम सिंधु लहराता है
सामने प्रलय घहराता है,
        रह रह कर भुजा फड़कती है,
       बिजली-सी नसें कड़कती हैं,
      चाहता तुरत मैं कूद पडूं,
     जीतूं कि समर में डूब मरूं।

अब देर नहीं कीजै केशव,
अवसेर नहीं कीजै केशव,
        धनु की डोरी तन जाने दें,
        संग्राम तुरत ठन जाने दें।
       तांडवी तेज लहराएगा,
       संसार ज्योति कुछ पाएगा.

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