"रामधारी सिंह दिनकर जी' द्वारा 'कर्ण का कुंती पे व्यंग्य-- : "श्रीकृष्ण और कर्ण की बात...."


"Ramdhari Singh Dinkar ji  Karnas Kunti Pay Satire-:" The talk of Shri Krishna and Karna .... "

क्या पाँच पुत्र हो जाने पर,
सुत के धन धाम गंवाने पर
        या महानाश के छाने पर,
        अथवा मन के घबराने पर
        नारियाँ सदय हो जाती हैं
        बिछुडों को गले लगाती है?

कुन्ती जिस भय से भरी रही,
तज मुझे दूर हट खड़ी रही
          वह पाप अभी भी है मुझमें,
          वह शाप अभी भी है मुझमें
         क्या हुआ कि वह डर जायेगा?
         कुन्ती को काट न खायेगा?

सहसा क्या हाल विचित्र हुआ,
मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ?
        कुन्ती का क्या चाहता ह्रदय,
        मेरा सुख या पांडव की जय?
        यह अभिनन्दन नूतन क्या है?
        केशव! यह परिवर्तन क्या है?

मैं हुआ धनुर्धर जब नामी,
सब लोग हुए हित के कामी
       पर ऐसा भी था एक समय,
       जब यह समाज निष्ठुर निर्दय
      किंचित न स्नेह दर्शाता था,
      विष-व्यंग सदा बरसाता था

उस समय सुअंक लगा कर के,
अंचल के तले छिपा कर के
       चुम्बन से कौन मुझे भर कर,
       ताड़ना-ताप लेती थी हर?
      राधा को छोड़ भजूं किसको,
      जननी है वही, तजूं किसको?


हे कृष्ण! ज़रा यह भी सुनिए,
सच है कि झूठ मन में गुनिये
       धूलों में था मैं पड़ा हुआ,
       किसका सनेह पा बड़ा हुआ?     
       किसने मुझको सम्मान दिया,
       नृपता दे महिमावान किया?

अपना विकास अवरुद्ध देख,
सारे समाज को क्रुद्ध देख
      भीतर जब टूट चुका था मन,
      आ गया अचानक दुर्योधन
     निश्छल पवित्र अनुराग लिए,
     मेरा समस्त सौभाग्य लिए

कुन्ती ने केवल जन्म दिया,
राधा ने माँ का कर्म किया
       पर कहते जिसे असल जीवन,
       देने आया वह दुर्योधन
      वह नहीं भिन्न माता से है
      बढ़ कर सोदर भ्राता से है

 

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